Education Essay in Hindi |Education Nibandh
वर्तमान में शिक्षा-प्रणाली का अर्थ है शिक्षा देने की पद्धति। वर्तमान शिक्ष6 प्रणाली से अभिप्राय है शिक्षा का वह ढाँचाजो आजकल हमारे स्कूलों और कॉलेजों में प्रचलित है। आज जिस तरह से हमारे विद्यालयों और कॉलेजों में शिक्षा दी जा रही है, यह भारतीय प्रणाली नहीं है। अंग्रेजों के शासन काल में इस प्रणाली का प्रारंभ हुआ था और देश के स्वतंत्र हो जाने के इतने वर्ष बाद भी हम उसी शिक्षा-प्रणाली को अपनाए हुए हैं।
प्राचीन काल में हमारा देश अपनी विद्या और ज्ञान के लिए प्रसिद्ध था। दूरदूर के देशों से लोग शिक्षा प्राप्त करने के लिए आया करते थे। यहाँ बड़ेबड़े विश्वविद्यालय थे, जिनमें से तक्षशिला और नालंदा का नाम तो प्राय: सभी जानते हैं। अंग्रेजों के आने से पूर्व ही यह शिक्षा प्रणाली प्राय: समाप्त हो चुकी थी। मुसलमानों के लंबे शासन काल में इस शिक्षा-प्रणाली का हास आरंभ हो गया था।
शिक्षा का उद्देश्य क्या है ? यदि इस प्रश्न पर विचार किया जाए तो आधुनिक शिक्षा प्रणाली से इसका कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता। आज के शिक्षा विशेषज्ञ कहते हैं कि शिक्षा का उद्देश्य बालक के व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास करना है, पर विश्वविद्यालयों और विद्यालयों के शिक्षाक्रम तथा विद्यार्थियों की रुचि देखने से तो प्रतीत होता है कि इसका उद्देश्य नौकरी तक ही सीमित रह गया है। विद्यार्थी परीक्षार्थी बन गए हैंविद्यार्थी तो बहुत कम दिखाई देते हैं।
सभी को यही धुन रहती है कि किस तरह अमुक परीक्षा पास कर ली जाए और उसके बाद अमुक नौकरी मिल जाए तो हमारी मेहनत सफल होगी।
आए दिन विद्यार्थियों की अनुशासनहीनता के समाचार पढ़ने को मिलते हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे आज की शिक्षा-प्रणाली के कारण आज का विद्यार्थी आदर्श भ्रष्ट हो गया है । उसे स्वयं पता नहीं कि देश या समाज के प्रति उसका दायित्व क्या है ! देशभक्ति की भावना उसमें बहुत कम दिखाई देती है। नारे लगाने या हड़ताल करने के लिए वह सदा तैयार रहता है ।
प्राचीन विद्या के समान उसमें ज्ञान प्राप्त करने या कुछ सीखने की चाह नहीं हैजितना समय वह विद्यालय में बिताता है, उतने समय तक परीक्षा की पिशाचिनी उसका खून चूसती रहती है। यदि कहीं सौभाग्य से वह इनसे छुटकारा पाने में सफल हो गया तो नौकरी दानवी मुंह खोलकर उसका ग्रास करने के लिए तैयार दिखाई देती है । बड़े दु:ख का विषय है कि आज की शिक्षा हमारे अभावों को दूर करने की बजाय हमारे अभावों का कारण बन रही है।
आज का शिक्षित अपने आपको न जाने क्या समझने लग जाता है। मजदूरी से उसे नफरत है। खेतीबारीदुकानदारी आदि पिता-दादा के धंधे उसे अपने मान के अनुकूल नहीं प्रतीत होते। संक्षेप , आज की शिक्षा-प्रणाली हमारे अच्छे गुणों का विकास न करके, हममें झूठा अभिमान पैदा कर रही है।
विद्या से प्राप्त होनेवाली नम्रता उसमें नहीं है। देश के नेताओंविद्वानों और शिक्षाशास्त्रियों को जितना इस विषय में चिंतन करना चाहिए था, वे उतने चिंतित प्रतीत नहीं होते। आचार्य विनोबा भावे के शब्दों , “सेना पर आठ सौ करोड़ रुपया खर्च होता है, यह भी मुझे उतना खतरनाक नहीं मालूम होता, जितनी खतरनाक आज की शिक्षा-प्रणाली मालूम होती है।”
वास्तव में परीक्षाएँ ही शिक्षा का माध्यम बन गई हैं, जो किसी प्रकार से योग्यता और परिश्रम का मापदंड नहीं है। आज जिन लोगों के हाथ में शासन है, यदि ठीक समय पर उन्होंने शिक्षाप्रणाली में क्रांतिकारी परिवर्तन न किए तो हमारा लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। लोकतंत्र की सफलता इसी में है कि देश की जनता शिक्षित हो और अपने मत का मूल्य समझे। वर्तमान शिक्षाप्रणाली को सुधारने के लिए निम्नलिखित बातों को अपनाना आवश्यक होगा
(क) विद्यालयों में पढ़ाए जानेवाले विषयों का दैनिक जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान हो। उन विषयों की जीवन में उपयोगिता हो, ताकि शिक्षा समाप्त होने के पश्चात् आजीविका पैदा करने में उन विषयों से कुछ सहायता प्राप्त हो सके।
(ख) शिक्षाक्रम में औद्योगिक तथा शिल्प संबंधी विषयों का स्थान हो, जिनसे शिक्षा और प्रतिदिन के जीवन के कामों में निकटता बनी रहे।
(ग) शिक्षा में शारीरिक परिश्रम संबंधी विषयों को भी उचित स्थान दिया जाए जिससे सभी वर्ग के विद्यार्थी लाभ उठा सकें। कृषि संबंधी तथा इस प्रकार के अन्य विषयों को पढ़कर विद्यार्थी मजदूरी से घृणा नहीं करेंगे और पढ़लिखकर केवल कुरसी की नौकरी के लिए भटकते नहीं रहेंगे। इस दिशा में बहुद्देशीय विद्यालय विशेष रूप से सहायक हो सकते हैं।
(घ) शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो। सभी विषयों को आजकल अंग्रेजी भाषा में पढ़ने वाले विद्यार्थी पचास प्रतिशत बातें तो इसलिए नहीं समझ पाते कि विदेशी भाषा में उन्हें अपने विषय पढ़ने ही होते हैं।
(ड) शिक्षालयों में व्यक्तिगत चरित्र-निर्माण और सदाचार संबंधी बातों का भी आवश्यक प्रबंध होना चाहिए। अध्यापक लोग केवल पढ़ाने तक ही सीमित न रहें, अपितु वे सच्चे अर्थों में शिक्षक हों।
कोठारी आयोग की सिफारिशों को भारत सरकार ने 1978 में स्वीकार किया था। उसके अनुसार 10 + 223 की प्रणाली पहले दिल्ली राज्य में लागू की गई। इसमें विद्यार्थी के बहुमुखी विकास की व्यवस्था की गई है। इसमें हाथ के कामविज्ञान की शिक्षा आदि पर बल दिया गया है। अब यह प्रणाली सारे देश में लागू की जा रही है। आशा है, इससे हमारी शिक्षा पद्धति समय के अनुकूल सही सिद्ध हो सकेगी।
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