भ्रष्टाचार पर निबंध |Corruption Essay in Hindi |Corruption Nibandh

Corruption Essay in Hindi |Corruption Nibandh

अत्यधिक अर्थात् अति से अधिक कोई भी चीज शुभ नहीं होती, फिर चाहे वह चीज अच्छी हो अथवा बुरीऔर जब यह अति शब्द ‘लालच’ के साथ जुड़ जाए तो पाप का कारण बन जाता है।

मनुष्य के हृदय में असंतोष का भाव जाग्रत होना अथवा संतोष की अपरिपक्वता ही लालच का प्रतीक है। असंतोष के कारण उत्पन्न लालच का भाव ही मनुष्य को बुराई के मार्ग पर खींच लाता है और अनवरत् उसे भ्रष्टाचार की ओर खींचता रहता है।

असंतोष मनुष्य में नित नई आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं को जन्म देता है और उत्पन्न अनन्त आवश्यकताएं एवं आकांक्षाएं उसमें लालच की भावना को जन्म देती हैं जिनकी पूर्ति हेतु मनुष्य नैतिक एवं अनैतिक में अंतर नहीं समझाता तथा अनैतिक कर्मों में संलग्न हो जाता है। मनुष्य की अपूर्ण अथवा दमित आवश्यकताएं उसे भ्रष्टाचार की ओर उन्मुख करती हैं।

भ्रष्टाचार की जड़ लालच है तो लालच का बीज है स्वार्थ की भावना। कथन का तात्पर्य यह है कि स्वार्थ रूपी बीज लालच की जड़ का निर्माण करता है और इस जड़ से भ्रष्टाचार के अनेक तने ऊपर की ओर बढ़कर सम्पूर्ण वातावरण को भ्रष्टाचार, अत्याचार और पापाचार की विफूली छाया में ढक लेता है।

मनुष्य के अंतःकरण में लालच विवशताओं का जामा पहनकर बैठ जाता है, जिनकी पूर्ति हेतु मनुष्य समाज की आड़ में बुरे कर्मों में संलिप्त है। आवश्यकताओं की पूर्ति होने पर मनुष्य विलासी होने लगता है, तब स्वार्थ की भावना उसके स्वभाव में उत्पन्न होकर उसे लालची बनाने लगती है और वह भ्रष्टाचार के पायदान पर कदम रख देता है। एक बार यह कदम उठाने पर मनुष्य निरंतर आगे ही बढ़ता जाता हैं, फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखता।

मनुष्य का भ्रष्टाचारी एवं लालची मस्तिष्क हर समय धर्मयुक्ति, इत्यादि का दुरुपयोग कर रहा है। उसके इस कुकृत्य से सम्पूर्ण समाज एवं भावी पीढ़ी भी भ्रष्टाचार के दावानल में झुलस रही है। केवल अहंकार से विमुक्त मनुष्य ही अच्छे कर्मों से संयुक्त होता है और ऐसा मनुष्य विनम्र और शीलवान होता है। यह विनम्रता मनुष्य को केवल सद्कर्मों से जोड़ती है, जिसमें बुराई, लालच भ्रष्टाचार, आदि के लिए रंचमात्र भी स्थान नहीं होता।

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