एक फूल की आत्मकथा पर निबंध |Autobiography of a Flower Essay in Hindi |Autobiography of a Flower Nibandh

Autobiography of a Flower Essay in Hindi |Autobiography of a Flower Nibandh

मैं फूल हु । आकाश के नीचे मेरा आवास है। ग्रीष्म, वर्षा, शीत को सहन करने का मुझे। अभ्यास है। मैं वायु के मंद-मंद झोंकों से नाचता हूँ, परंतु प्रचंड पवन के झोंकों को भी हंसते हँसते सहन करता हूँ। दूसरों को अपने रूपसौंदर्यगंध तथा कोमलता द्वारा प्रसन्न करना ही मेरा काम है। मैं सदा प्रसन्न मन हैं, इसलिए कवि मुझे ‘सुमन’ कहकर पुकारते हैं । मेरे चारों ओर कटे रहते हैं। वे मेरी रक्षा करते हैं, किंतु वायु के झोंके आने पर कई बार वे मुझे बेतरह चुभते भी हैं, परंतु मैं फिर भी ‘आह’ नहीं करता।

मुझे तोड़ने के लिए जिसका हाथ बढ़ता है, मैं उसपर रुष्ट नहीं होता, बल्कि माला में पिरोया जाने पर उसके गले का हार बनता हूं। मैं सुनहरे प्रभात में खिल जाता हूं। परंतु अंधकार-भरी रात्रि में भी भयभीत नहीं होता, बल्कि मुसकराता ही रहता हूं। मेरा मन सदा संतुलित रहता है-सुख-दु:ख में एक समान।

मैं अपने मित्रों में रहकर बहुत प्रसन्न होता हूँ। श्वेतकमलनीलकमलरक्तकमल स्वर्णकमलगुलदाऊदीअमलतासजूहीचमेली, नरगिसमोतियाजपा (गुड़हल, रात को रानी और चंपा आदि मेरी अनेक जातियाँ हैं । मेरा हर रूप सुंदर है, हर जाति कमनीय है। बागों, नदियों, तालाबों, झीलों, उपवनों और जंगलों, मैदानों और पर्वतों में मेरी विविध जातियों के रूप दिखाई देते हैं । कोमलता के लिए कविगण सदा मुझे ही उपमान बनाते हैं। मैं सुख का प्रतीक हूं । में फूल हूं ।

आज से दो दिन पहले मैं कली के रूप में पौधे पर इतरा रहा था। वहाँ मेरे और भी कई भाई-बहन प्रसन्नता से झूम रहे थे। इतने में प्राचीन दिशा में अरुणोदय हुआ। शीतलमंद समीर का एक झोंका आया। उसके मादक स्पर्श ने मुझे गुदगुदा दिया। मैंने आँखें खोलीं । मेरा अंग अंग पंखुड़ियों के रूप में खिल गया। मैंने अर्धविकसित फूल का रूप धारण कर लिया। मध्याह्न का सूर्य गगन में चमक रहा था।

उसकी प्यारी किरणों ने मुझे खूब हंसाया। अब में पूर्णरूप से विकसित हो चुका था। मैंने इधर उधर देखा। मेरे साथी भी हैंस-हंसकर लोटपोट से हो रहे थे। बच्चों को देखकर हम एक-दूसरे की ओर संकेत करते थे। क्योंकि बच्चों के कपोलों का रंग हमारी पंखुड़ियों से मिलता-जुलता था। जो भी स्त्री-पुरुष उद्यान में आतेवे हमारी ओर आकृष्ट हो जाते थे। वे मेरे रूप पर मुग्ध होकर एकटक मेरी ओर देखते रहते थे।

मुझपर यौवन का नशा छा गया। मैं फूला न समाया। मुझे अपने रूप का उतना ही गर्व था, जितना नवयौवना को होता है। मुझे अपने लावण्य जैसा किसी का लावण्य प्रतीत नहीं हाता था।

मधुमक्खियाँ आईं। मैंने उदारतापूर्वक अपने मधुर मकरंद से उनका सत्कार किया। भंवरे आए। उन्हें अपने पराग कण अर्पित किए। एक बालक ने मुझे तोड़ लेने का प्रयत्न किया। परंतु काँटों ने मेरी रक्षा की। एक दिन एक सुंदरी आई। उसने आँखोंही-में मेरे रूप को सराहना की । सचमुचउस समय मुझे हर्ष से रोमांच हो आया।

चाँदनी रात थी। नभ में चंद्र उन्मुक्त भ्रमण कर रहा था। उसकी शीतल किरणों ने मेरे अंग-अंग को दुलारा। चंद्र ने मेरी ओर देखा। मानो कहा‘तुम सुंदर हो ।” मैंने भी उसकी ओर देखा और कहा’तुम भी तो सुंदर हो।”

इतने में माली आया। उस निर्दय ने मुझे डाली से तोड़ लिया। फिर अपने स्वामी को नवयुवती पुत्रवधू को दे दिया। इस नवयुवती नवपरिणीता के केशों में लगकर मैं पहले तो इतराया परंतु प्रभात होते ही जब वह दर्पण के सम्मुख गई तो मैं अपने विकृत रूप को देखकर काँप उठा। मैं कुम्हला चुका था। यही मेरी कहानी है।

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