बाल श्रम पर निबंध |Child labour Essay in Hindi |Child labour Nibandh

Child labour Essay in Hindi |Child labour Nibandh

बाल-मन सामान्यतया अपने घर-परिवार तथा आसपास की स्थितियों से अपरिचित रहा करता है। स्वच्छन्द रूप से खाना-पीना और खेलना ही वह जानता एवं इन्हीं बातों का प्राय: अर्थ भी समझा करता है। कुछ और बड़ा होने पर तख्तीस्लेट और प्रारम्भिक पाठमाला लेकर पढ़नालिखना सीखना शुरू कर देता है। लेकिन आज परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बन गई और बन रही हैं कि उपर्युक्त कार्यों का अधिकार रखने वाले बालकों के हाथ-पैर दिन-रात मेहनत मजदूरी के लिए विवश होकर धूलधूसरित तो हो ही चुके हैं, अक्सर कठोर एवं छलनी भी हो चुके होते हैं। चेहरों पर बालसुलभ मुस्कान के स्थान पर अवसाद की गहरी रेखायें स्थायी डेरा डाल चुकी होती हैं।

फूल की तरह ताजा गन्ध से महकते रहने योग्य फेफड़ों में धूल, धुआं, भरकर उसे अस्वस्थ एवं दुर्गन्धित कर चुके होते हैं। गरीबीजन्य बाल मजदूरी करने की विवशता ही इसका एकमात्र कारण मानी जाती हैं ऐसे बाल मजदूर कई बार तो डर, भय, बलात कार्य करने जैसी विवशता के बोझ तले दबेघुटे प्रतीत होते हैं और कई बार बड़े बूढ़ों की तरह दायित्वबोध से दबे हुए भी। कारण कुछ भी हो, बाल मजदूरी न केवल किसी एक स्वतंत्र राष्ट्र बल्कि समूची मानवता के माथे पर कलंक है।

छोटे-छोटे बालक मजदूरी करते हुए घरोंढाबों, चायघरोंछोटे होटलों आदि में तो अक्सर मिल ही जायेंगे, छोटी-बड़ी फैक्टरियों के अन्दर भी उन्हें मजदूरी का बोझ ढोते हुए देखा जा सकता है। काश्मीर का कालीन उद्योग, दक्षिण भारत का माचिस एव पटाखा उद्योग, महाराष्ट्र, गुजरात और बंगाल का बीड़ी उद्योग तो पूरी तरह से बालमजदूरों के श्रम पर ही टिका हुआ है। इन स्थानों पर सुकुमार बच्चों से बारह- चौदह घण्टे काम लिया जाता है, पर बदले में वेतन बहुत कम दिया जाता है, अन्य किसी प्रकार की कोई सुविधा नहीं दी जाती। यहां तक कि इनके स्वास्थ्य का भी ध्यान नहीं रखा जाता। इतना ही नहीं, यदि ये बीमार पड़ जाये तब भी इन्हें छुट्टी नहीं दी जाती बल्कि काम करते रहना पड़ता है।

यदि छुट्टी कर लेते हैं तो उस दिन का वेतन काट लिया जाता है। कई मालिक तो छुट्टी करने पर दुगुना वेतन काट लेते हैं। ढाबों, चायघरों आदि में या फिर हलवाइयों की दुकानों पर काम कर रहे बच्चों की दशा तो और भी दयनीय होती है। कई बार तो उन्हें बचा-खुचा जूठन ही खानेपीने को बाध्य होना पड़ता है। बेचारे वहीं बैंचों पर या भट्टियों की बुझती आग के पास चौबीस घण्टों में दो-चार घण्टे सोकर गर्मी-सर्दी काट लेते हैं। बात-बात पर गालियां तो सुननी ही पड़ा करती हैं, मालिकों के लात-घूसे भी सहने पड़ते हैं।

यदि किसी से कांच का गिलास या कपप्लेट टूट जाता है तो उस समय मार-पीट और गाली-गलौच के साथ जुर्माना तक सहन करना पड़ता है। यही मालिक अपनी गलती से कोई वस्तु इधर-उधर रख देता है और न मिलने पर इन बाल मजदूरों पर चोरी करने का इल्जाम लगा दिया जाता है। इस प्रकार बाल मजदूरों का जीवन बड़ा ही दयनीय एवं यातनापूर्ण होता है।

बाल-मजदूरों का एक अन्य वर्ग भी है। कन्धे पर झोला लादे इस वर्ग के मजदूर सड़क पर फिके हुए गन्दे, फटे कागज पॉलिथीन के लिफाफे या प्लास्टिक के टुकड़े आदि बीनते दिखाई दे जाते हैं। कई बार गन्दगी के ढेरों को कुरेद कर उसमें से लोहे, टिनप्लास्टिक आदि की वस्तुएँ चुनतेराख में से कोयले बीनते हुए भी देखा जा सकता है। ये सब चुनकर कबाड़खानों पर जाकर बेचने पर इन्हें बहुत कम दाम मिल पाता है जबकि ऐसे कबाड़ खरीदने वाले लखपति-करोड़पति बन जाते हैं।

आखिर में बालमजदूर उत्पन्न कहाँ से होते हैं ? इसका सीधा-सा एक ही उत्तर है-गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले घर-परिवारों से आया करते हैं। फिर चाहे ऐसे घर-परिवार ग्रामीण हों या नगरीय झुग्गी-झोपड़ियां, दूसरे अपने घरपरिवार से गुमराह होकर आये बालक। पहले वर्ग की विवशता तो समझ में आती है कि वे लोग मजदूरी करके अपने घर-परिवार के अभावों की खाई पाटना चाहते हैं।

दूसरे उन्हें पढ़ने लिखने के अवसर एवं सुविधाएं नहीं मिल पाईं। लेकिन दूसरे गुमराह होकर बालमजदूरी करने वाले बालवर्ग के साथ कई प्रकार की कहानियां एवं समस्यायें जुड़ी रहा करती हैं। जैसे पढ़ाई में मन न लगने या फेल हो जाने पर मार के डर से घर से दूर भाग आनासौतेली मां या पिता के कठोर व्यवहार से पीड़ित होकर घर त्याग देना, बुरी आदतों और बुरे लोगों की संगत के कारण घरों में न रह पाना या फिर कामचोर आदि कारणों से घर से भाग कर मजदूरी करने के लिए विवश हो जाना पड़ता है।

देश का भविष्य कहे जाने वाले बच्चों को किसी भी कारण से मजदूरी करनी पड़ेइसे मानवीय नहीं कहा जा सकता। एक तो घरों में बालकों के रह सकने योग्य सुविधायें परिस्थितियां पैदा करना आवश्यक है। दूसरे स्वयं राज्य को आगे बढ़कर बालकों के पालन की व्यवस्था सम्हालनी चाहिएतभी समस्या का समाधान सम्भव हो सकता है।

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