प्रकृति पर निबंध |Nature Essay in Hindi |Nature Nibandh

Nature Essay in Hindi |Nature Nibandh

प्रकृति पर निबंध – Essay on Nature

प्रकृति ने मनुष्य को उसके जीवनयापन हेतु अनेक संसाधन उपलब्ध कराए और उसे धनधान्य से समृद्ध तथा उसके लिए विकास का मार्ग प्रशस्त किया। किन्तु, आधुनिक मनुष्य प्रकृति से विमुख है। औद्योगिक क्रांति के साथ मशीनों ने मानव के क्रियाकलापों पर अधिकार स्थापित करना आरम्भ कर दिया। विकास की ओर अग्रसर होने की प्रवृत्ति ने मनुष्य की भौतिकता में वृद्धि की है, जिससे आधुनिक मनुष्य ने अपनी भावी पीढ़ी के हिस्से के संसाधनों का दोहन भी कर लिया है। वाहनों की बढ़ती संख्या और सीसायुक्त पेट्रोल के कारण महासागरों में सीसाविषाक्तता खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है।

अम्ल वृष्टि (वायुमण्डल में सल्फर से धूम्र कोहरा और सल्फरडाइ-ऑक्साइड की अधिकता) समस्त पारिस्थितिक तंत्र हेतु हानिप्रद है। संसाधनों के अत्यधिक दोहन से लोहा और कोयला जैसे आवश्यक संसाधनों की कमी तो भविष्य में होगी ही साथ ही पेयजल का संकट भी भीषण होता जा रहा है। बढ़ती जनसंख्या के कारण हमारे वन और चारागाह निरंतर सिकुड़ते जा रहे हैं। भू-क्षरण एवं उत्पादकता ह्रास की समस्या बढ़ रही है।

वनों का दोहन और वनों पर कृषि भूमि उत्पादकता उल्लेखनीय है। भारत में प्रतिवर्ष हजारों हेक्टेयर वन्य भूमि कृषि में परिवर्तित की जा रही है। जब तक मानव प्रकृति के सहयोग से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता रहा, तब तक पर्यावरण और पारिस्थितिक संतुलन बना रहा।

आधुनिक समाज की बढ़ती जनसंख्या, भौतिकवादी उच्च तकनीक और प्रकृति के प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार ने प्रगति की गति को तीव्र बना दिया है, जिसका प्रभाव स्पष्ट रूप से सामने है। संसाधनों के दोहनऊर्जा का अत्यधिक प्रयोग, औद्योगीकरण शहरीकरण, मशीनीकरण, खगोलीय उपग्रह (कृत्रिम, परमाणु परीक्षण तथा प्रकृति के प्रति बढ़ती मनुष्य की उपेक्षा के कारण पर्यावरण ह्रास की एक ऐसी विकट और विकराल समस्या आ खड़ी हुई है कि आज उस पर मनुष्य द्वारा विचार किया जाना अत्यावश्यक है।

आधुनिकता के इस वैज्ञानिक युग में मानव की प्रकृति के प्रति उपेक्षापूर्ण नीति ने अनेक समस्याएं विकसित की हैं। प्रदूषण फैलाने वाले तत्व प्राकृतिक एवं मानव द्वारा निर्मित दो रूपों में होते हैं। प्राकृतिक प्रदूषकों में ज्वालामुखी का फटना भूकम्प, बाढ़, मृदा अपरदनप्राकृतिक दलदल आदि प्रमुख हैं। मनुष्य द्वारा निर्मित प्रदूषकों में विकिरणकीटनाशक औषधियांतीव्र ध्वनि, प्लास्टिक, तापधुआं, विविध रसायन (औद्योगिक एवं शहरी अपशिष्ट) पेट्रोलियम रेडियोधर्मी विषाक्त पदार्थ, इत्यादि सभी सम्मिलित रूप में वायु, जलमृदाआदि को प्रदूषित बनाते हैं । जैवमण्डल की प्राकृतिक संरचना के असंतुलन हेतु सिर्फ और सिर्फ मनुष्य ही उत्तरदायी है। उसने प्राकृतिक तंत्र की गुणवत्ता को प्रभावित किया है। उसकी संरचना में अवांछनीय परिवर्तन किए हैं। दूसरे शब्दों में, मनुष्य ने प्राकृतिक संरचना एवं संतुलन को बिगाड़ने तथा उसे नष्ट करने का दुष्कृत्य किया है । विश्व के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक स्वरूप में तीव्रता के साथ परिवर्तन आए हैं।

यातायात के साधनों में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। अनियंत्रित जनसंख्या वृद्धि ने आग में घी का कार्य किया है। जनसंख्या बढ़ने के साथ आवासव्यवसाय एवं उद्योगों के लिए भूमि की तथा काम के लिए अधिकाधिक ऊर्जा की आवश्यकता अनुभव होने लगी। इसके परिणामस्वरूप प्राकृतिक सम्पदा पर दबाव लगातार बढ़ता गया। वनों की अंधाधुंध कटाई होने लगी । कृषि भूमि पर निवास स्थल बनाए जाने लगे। हरेभरे समृद्ध वनों के स्थान पर कंक्रीट के जंगल अर्थात् बड़ीबड़ी इमारतें बनाई जाने लगीं। जीवाश्म ईंधन कोयला, प्राकृतिक गैसपेट्रोलियम इत्यादि का अनियंत्रित दोहन होने लगा। ऐसे में मनुष्यवनस्पति, जीव, जल एवं वायु के मध्य का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ता चला गया। औद्योगिक कल कारखानों और मानव गतिविधियों से उत्सर्जित विपैले हानिकारक पदार्थ हमारी भूमि, जल एवं वायु को प्रदूषित करने में जुट गएजिसके कारण विनाशकारी प्रभाव से मानव सहित समस्त जीव-जन्तुओं पेड़ पौधों, पशु-पक्षियों, इत्यादि के अस्तित्व को गम्भीर खतरा उत्पन्न हो गया।

औद्योगिक कारखानों, ताप विद्युतगृहों, विभिन्न वाहनों, औद्योगिक भट्टियों एवं विद्युत जेनरेटरों की बाढ़ द्वारा बड़ी मात्रा में हानिकारक गैसें (कार्बनमोनो-ऑक्साइडकार्बनडाई ऑक्साइडहाइड्रोकार्बन और क्लोरोफ्लोरोकार्बनआदि) और धूलधुआं आदि वायुमण्डल में छोड़ा जा रहा है। शहरों में सांस लेना दूभर होता जा रहा है। मानव श्वसनशिरा एवं नेत्र सहित शरीर की विभिन्न व्याधियों से ग्रस्त है और नितनई बीमारियां जन्म ले रही हैं। यह सब प्रतिफल है-मानव द्वारा पर्यावरण में छोड़े गए प्रदूषकों का और उसके प्रकृति से विमुख होने का। स्पष्ट है कि, विकास के नाम पर किए गए पर्यावरणीय अत्याचार की विकृतियां सचेत करने लगी हैं कि प्रकृति बहुत देर तक मानवीय उद्दण्डता को सहन नहीं कर सकती।

अतः मनुष्य को सचेत हो जाना चाहिए। प्रकृति एवं उसके संसाधनों का संरक्षण एवं संवर्द्धन हमारा नैतिक कर्तव्य है। हमें यह समझना होगा कि प्रकृति को किसी प्रकार की हानि पहुंचाए बिना विकास करने में ही सम्पूर्ण मानव मात्र का कल्याण निहित है। मनुष्य पर्यावरण की पृष्ठभूमि में जन्म लेता है, पलता है तथा अपना यथोचित विकास करता है। इसके साथ ही वह पर्यावरण के तत्वों से भी परिचित होता है। मनुष्य अपने कार्यों एवं अधिवासों की प्रकृति के साथ समायोजित है।

प्रकृति जहां मूक दर्शक की भांति है, वहीं मनुष्य वाचाल है। जो व्यक्ति प्रकृति के प्रतिकूल होते , वे व्यक्ति मानव इषी होते हैं, अविवेकी होते हैं। आधुनिक मनुष्य को प्रकृति के साथ अटूट सम्बन्ध स्थापित करना चाहिए। मनुष्य को यह समझना चाहिए कि हम पृथ्वी एवं वायुमण्डल से उतना ही ले सकने के अधिकारी , जितना कि उसे पुनः लौटा सकते हैं।

प्रकृति पर निबंध – Essay on Nature

“क्षिति जल पावक गगन समीरा।
पंच-तत्व यह अधम सरीरा।।

मानव शरीर प्रकृति के पंच तत्वों से मिलकर बना है और जीवन को आरंभ से लेकर अंत तक चक्रवात की तरह घेरे रहता है। प्रकृति के विविध रूपों, क्रिया-व्यापारों और आकर्षणों से मानव ने कितना कुछ ग्रहण किया है, प्राकृतिक उपादानों ने उसके बुद्धि और विचारों को कितना परिष्कृतपरिमार्जित और विस्तारित किया है, इसका लेखाजोखा करना अत्यत कठिन है। प्रकृति ने मानव को क्या-क्या दिया है इसका अनुशीलन करने पर मानव प्रकृति का सबसे बड़ा ऋणी दिखाई देता है। प्रकृति पगपग पर मानव जीवन को प्रभावित करती है और अपने क्रिया-व्यापारी से नित नई शिक्षा और संदेश देती है।

मनुष्य बिखरे हुए प्राकृतिक रूप सौंदर्य और चैतन्य में अपने जीवन की अनुरूपता पाता है तथा चतुर्दिक फैली हुई प्राकृतिक सुषमा और उसके अगाध सौंदर्य पर विमुग्ध होते हुए आनन्द और कौतुहल का अनुभव करता है । प्रभातकालीन उषा जीवन को जागरण से भरकर नवीन आवेग और उत्साह का संचार करती है। मध्यान्ह स्फूर्ति और तेज धारण कर कार्य में तत्पर रहने का संदेश देता है। गोधूली कार्य के प्रति ममतामय रहने का संदेश देती है। कवि के शब्दों में

जीवन क्या है? निर्वीर है,
मस्ती ही इसका पानी है,
सुखदुख के दोनों तीरों से,
चल रहा राह मन-मानी है।

झरने ही विशाल नदियों का रूप धारण कर जीवन में विचारों के प्रवाह के महत्व को प्रदर्शित करते हैं। जीवन की गतिशीलता विचारों के प्रवाह पर ही निर्भर करती है। विचारों का प्रवाह कहीं तीव्र, कहीं मंद है, पर उन्मुक्त श्रोतस्विनी के प्रवाह की तरह अनवरत बहता रहता है। जिस प्रकार नदियों के प्रवाह को रोकने की शक्ति किसी में नही है उसी प्रकार मन में संचरित होने वाले भावों को और विचारों के प्रवाह को भी नही रोका जा सकता। जिस प्रकार वेगवती धारा के प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए किनारों को बांध कर मजबूत बनाने का प्रयास किया जाता है उसी प्रकार मन में उठने वाले भावों और विचारों के प्रवाह को भी नियंत्रित करने के लिए संयम नियम आस्था दृढ़ता और विश्वास के मजबूत बांधों की आवश्यकता होती है। प्रकृति पराजित मन को उत्साह और साहस का अनथक मार्ग दिखाकर अनवरत कर्मरत और सृजनशील रहते। हुए निरंतर आगे बढ़ने का संदेश देती है।

प्रकृति के साहचर्य से परोपकार की पूर्ण भावना का संदेश मिलता है। वास्तव में प्रकृति का प्रकृत उद्देश्य ही परोपकार करना है। वह बिना किसी प्रतिदान की आकांक्षा किए अपना अक्षय कोष सबके कल्याणार्थ उन्मुक्त भाव से लुटाती रहती है। वृक्ष स्वयं फल नहीं खाते, नदी अपने उपयोग के लिए अथवा अपने विस्तार के लिए जल का संचय नही करती। वायु दूसरों को जीवन दान देने के लिए ही अविश्रान्त भाव से बहती रहती है। धूप हमारे भीतर गरमाई भरकर हमारी उर्जा को बढ़ाती है । चिड़ियों की मिठासशंखपुष्पी का उजासआकाश की असीमता सभी हमें नित नई शिक्षा देते हैं। यही कारण है कि प्रकृति अनादि काल से सृजनशील व्यक्तित्व को प्रभावित करती रही है। कालिदास से लेकर पंत तक प्रकृति के ऋणी हैं ।

मनुष्य प्रकृति से ही सीखता है। उसके सारे गुण अवगुण प्रकृति प्रदत्त ही हैं । जिसका मोल उसे चुकाना नही पड़ता। फिर भी वह वशीभूत होकर प्रकृति की उपेक्षा करता है। प्रकृति उसे जीवन देती है किन्तु वह प्रतिपल प्रकृति को विनष्ट करने में लगा हुआ है। की है ।

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